Tuesday 10 January 2012

पिता






स्रष्टि में निर्माण का आधार, देता नवजीवन को आकर...
विश्व से अनभिग्य शिशु को, ईश्वर का अनमोल उपहार...

भूलें हुए इच्छाएं अपनी, पहने वस्त्र पुराने...
लाता नित शिशु के लिए नए खिलोने.

रोये कभी जब बालक, उसको खूब घुमाये...
बैठा कर कांधे पर अपने, सूरज-चाँद दिखाए...

अंगुली थमाकर बालक को, चलना उसे सिखाता...
जीवन की है रह कठिन, पर बढ़ना कैसे बताता...

पिता जुटता कपडा-रोटी, घर में अनुशाशन का दूजा नाम...
पूरी करता सभी जरूरतें, करके अपनी नींद हराम...

बालक के लिए है पिता ऐसे, जैसे बाग़ का माली...
बिन पिता के बचपन की, कौन करेगा रखवाली?

जब बालक किसी मोड़ पर जीवन के भटक जाता है...
पिता ही तो उसको अच्छे-बुरे की पहचान करता है...

जब भी जीवन बालक को, कसौटियों पर आजमाता है...
पिता अपने विश्वास से, साहस उसका बढ़ाता है...

बालक भी विरासत में मिले, संस्कारों का मान बढ़ाता है...
होकर जीवन में सफल, खुद पर अभिमान कराता है...

होते हुए संतान के, यदि माता-पिता है लाचार...
ऐसी संतान का तो जीवन, जीना ही है बेकार...

छत्रछाया माता-पिता की, सभी सुखों से बढ़कर होती है...
माता-पिता की सेवा ही, सब पूजाओं से बढ़कर होती है..

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